गोपाल स्तोत्रम्

गोपाल स्तोत्रम् | Gopal Stotram

स्फुरद्बर्हिदलोद्बद्धनीलकुञ्चितमूर्धजम् ।
कदम्बकुसुमोद्बद्धवनमालाविभूषितम् ॥ २॥

गण्डमण्डलसंसर्गिचलत्कुञ्चितकुन्तलम् ।
स्थूलं मुक्ताफलोदारहारोद्योतितवक्षसम् ॥ ३॥

रुचिरौष्ठपुटन्यस्तवंशीमधुरनिःस्वनैः ।
लसद्गोपालिकाचेतो मोहयन्तं पुनः पुनः ॥ ५॥

बल्लवीवदनाम्भोजमधुपानमधुव्रतम् ।
क्षोभयन्तं मनस्तासां सस्मेरापाङ्गवीक्षणैः ॥ ६॥

प्रभिन्नाञ्जनकालिन्दीजलकेलिकलोत्सुकम् ।
योधयन्तं क्वचिद्गोपान् व्याहरन्तं गवां गणम् ॥ ८॥

कालिन्दीजलसंसर्गिशीतलानिलसेविते ।
कदम्बपादपच्छाये स्थितं वृन्दावने क्वचित् ॥ ९॥

वसन्तकुसुमामोदसुरभीकृतदिङ्मुखे ।
गोवर्धनगिरौ रम्ये स्थितं रासरसोत्सुकम् ॥ ११॥

सव्यहस्ततलन्यस्तगिरिवर्यातपत्रकम् ।
खण्डिताखण्डलोन्मुक्तमुक्तासारघनाघनम् ॥ १२॥

कृष्णमेवानुगायद्भिस्तच्चेष्टावशवर्तिभिः ।
दण्डपाशोद्यतकरैर्गोपालैरूपशोभितम् ॥ १४॥

नारदाद्यैर्मुनिश्रेष्ठैर्वेदवेदाङ्गपारगैः ।
प्रीतिसुस्निग्धया वाचा स्तूयमानं परात्परम् ॥ १५॥

राजवल्लभतामेति भवेत्सर्वजनप्रियः ।
अचलां श्रियमाप्नोति स वाग्मी जायते ध्रुवम् ॥ १७॥

॥ इति श्रीनारदपञ्चरात्रे गोपालस्तोत्रं समाप्तम् ॥


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