भुजगतल्पगतं घनसुन्दरं गरुडवाहनमम्बुजलोचनम् ।
नलिनचक्रगदाकरमव्ययं भजत रे मनुजाः कमलापतिम् ॥ १॥
अलिकुलासितकोमलकुन्तलं विमलपीतदुकूलमनोहरम् ।
जलधिजाश्रितवामकलेवरं भजत रे मनुजाः कमलापतिम् ॥ २॥
किमु जपैश्च तपोभिरुताध्वरैरपि किमुत्तमतीर्थनिषेवणैः ।
किमुत शास्त्रकदम्बविलोकनैः भजत रे मनुजाः कमलापतिम् ॥ ३॥
मनुजदेहमिमं भुवि दुर्लभं समधिगम्य सुरैरपि वाञ्छितम् ।
विषयलम्पटतामपहाय वै भजत रे मनुजाः कमलापतिम् ॥ ४॥
न वनिता न सुतो न सहोदरो न हि पिता जननी न च बान्धवाः ।
व्रजति साकमनेन जनेन वै भजत रे मनुजाः कमलापतिम् ॥ ५॥
सकलमेव चलं सचराचरं जगदिदं सुतरां धनयौवनम् ।
समवलोक्य विवेकदृशा द्रुतं भजत रे मनुजाः कमलापतिम् ॥ ६॥
विविधरोगयुतं क्षणभङ्गुरं परवशं नवमार्गमलाकुलम् ।
परिनिरीक्ष्य शरीरमिदं स्वकं भजत रे मनुजाः कमलापतिम् ॥ ७॥
मुनिवरैरनिशं हृदि भावितं शिवविरिञ्चिमहेन्द्रनुतं सदा ।
मरणजन्मजराभयमोचनं भजत रे मनुजाः कमलापतिम् ॥ ८॥
हरिपदाष्टकमेतदनुत्तमं परमहंसजनेन समीरितम् ।
पठति यस्तु समाहितचेतसा व्रजति विष्णुपदं स नरो ध्रुवं ॥ ९॥
इति श्रीमत्परमहंसस्वामिब्रह्मानन्दविरचितं कमलापत्यष्टकं समाप्तं ॥
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