ॐ जातवेदसे सुनवाम सोम मरातीयतो निदहाति वेदः ।
स नः पर्षदति दुर्गाणि विश्वा नावेव सिन्धुं दुरिताऽत्यग्निः ॥ १॥
तामग्निवर्णां तपसा ज्वलन्तीं वैरोचनीं कर्मफलेषु जुष्टाम् ।
दुर्गां देवीꣳ शरणमहं प्रपद्ये सुतरसि तरसे नमः ॥ २॥
अग्ने त्वं पारया नव्यो अस्मान्थ्स्वस्तिभिरति दुर्गाणि विश्वा ।
पूश्च पृथ्वी बहुला न उर्वी भवा तोकाय तनयाय शंयोः ॥ ३॥
विश्वानि नो दुर्गहा जातवेदः सिन्धुन्न नावा दुरिताऽतिपर्षि ।
अग्ने अत्रिवन्मनसा गृणानोऽस्माकं बोध्यविता तनूनाम् ॥ ४॥
पृतना जितꣳ सहमानमुग्रमग्निꣳ हुवेम परमाथ्सधस्थात् ।
स नः पर्षदति दुर्गाणि विश्वा क्षामद्देवो अति दुरितात्यग्निः ॥ ५॥
प्रत्नोषि कमीड्यो अध्वरेषु सनाच्च होता नव्यश्च सथ्सि ।
स्वाञ्चाग्ने तनुवं पिप्रयस्वास्मभ्यं च सौभगमायजस्व ॥ ६॥
गोभिर्जुष्टमयुजो निषिक्तन्तवेन्द्र विष्णोरनुसंचरेम ।
नाकस्य पृष्ठमभि संवसानो वैष्णवीं लोक इह मादयन्ताम् ॥ ७॥
ॐ कात्यायनाय विद्महे कन्यकुमारि धीमहि ।
तन्नो दुर्गिः प्रचोदयात् ॥
॥ इति दुर्गा सूक्तम् ॥
॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
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